Visual Arts
शनिवार, 22 जून 2013
बुधवार, 10 अप्रैल 2013
जामिनी राय : लोककला के सतरंगी चितेरे
जामिनी राय : लोककला के सतरंगी चितेरे
बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में जिन कलाकारों
ने आधुनिक भारतीय चित्रकला का आधार स्थापित किया उनमें जामिनी राय एक प्रमुख लोकप्रिय
कलाकार थे। 11 अप्रैल 1887 में बांकुरा (बीरभूम) जिले के छोटे से
गांव बेलियाटोर में जन्मे जामिनी 1903 में कलकत्ता आये और गवर्नमेंट स्कूल औफ आर्ट में दाखिला लिया।
इस प्रकार उनकी औपचारिक शिक्षा का प्रारंभ पश्चिमी कला शैली से हुआ लेकिन शीघ्र ही
वे बंगाल की लोककला की ओर आकर्षित हुए।
आजादी से पहले भारतीय कला के पुनर्जागरण
के क्रम में जिस बंगाल स्कूल का जन्म हुआ, जामिनी राय
जैसे कलाकारों ने उसे नया स्वरुप दिया। यह भारत में आधुनिक चित्रकला के विकास दौर था।
पाश्चात्य शैली को नकारते हुए उन्होंन बंगाल के स्थानीय वातावरण के अनुसार एक विशिष्ट
शैली का विकास किया। पूजा की मूर्तियाँ, खिलौने, अल्पना आदि के कलात्मक गुणों से समाहित
में उनके चित्रों की धूम मच गई। मुखाकृति की सीमारेखा से बाहर बडे. नेत्र, मोटी काली
रेखाओं और चटकीले अपारदर्शी रंगों का प्रयोग उनकी विशिष्ट शैली की पहचान है।
जामिनी राय ने स्थानीय लोक कलाओं के विषय-वस्तु
मां बेटा, पशुपक्षी व रामायण के दृश्यों और राधा–कृष्ण का अपनी कला में प्रमुखता से
समावेश कियाहै। वे यूरोपीय रंगों के स्थान खनिज और वानस्पतिक द्वारा बनाए गए रंगों
का प्रयोग करना पसंद करते थे। उन्होंने भारतीय लाल, पीला, हरा, सिंदूरी, भूरा, नीला
और सफेद रंगों का बखूबी इस्तेमाल किया। कैनवस एवं ऑयल पेंटस की बजाय कागज या ताड़ पत्र
पर बनाये गये उनके ये चित्र काफी आकर्षक लगते है। व्यावसायिक कलाकार के रूप में आपने
लिथोग्राफ़ी में भी कार्य किया।
सैकड़ों एकल प्रदर्शनियों और सामूहिक प्रदर्शनियों
में उनके चित्रों को पूरे विश्व में प्रदर्शित किया जा चुका है।1955 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण
से सम्मानित किया गया। अनेक व्यक्तिगत व सार्वजनिक कला सग्रहालयों और संस्थानों के
साथ–साथ 'ललितकला अकादमी दिल्ली', जर्मनी व संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में उनके चित्रों
के बड़े संग्रह हैं। 24 अप्रैल1972 को कलकत्ता में उनका देहावसान हुआ।
शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012
आज 6 अप्रैल है ...
आज हम चर्चा कर रहे हैं यूरोपीय कला के ऐसे दो कलाकारों की जो केवल 37 वर्ष की आयु तक कला सर्जना कर पाने पर भी अपनी बेमिसाल प्रतिभा साबित कर गये । पहले बात करते हैं उच्च पुनर्जागरण काल के महान कलाकार राफेल सांजियो की ।
6 अप्रैल 1483 (गुडफ्राई डे) को इटली के उर्बिनो शहर में जन्मे राफेल की 8 वर्ष की आयु में माँ की मृत्यु और 11 वर्ष में पिता के देहांत के बाद चाचा ने पालन पोषण किया । चित्रकार पेरुजिनो की चित्रशाला में प्रशिक्षु के रूप में कार्य करने दौरान सैनिक का स्वप्न नामक चित्र की रचना की । इसके बाद अगले दस वर्षों की अवधि में स्कूल ऑफ़ एथेंस व मैडोना जैसे चित्रो की रचना करके अपूर्व ख्याति प्राप्त की । छाया प्रकाश के सिद्दान्तों व संयमित रेखांकन से प्रभावी चित्रांकन इनकी मुख्य विशेषता है । वेटिकन पुस्तकालय में रचित भित्तिचित्र स्कूल आफ़ एथेंस समूह संयोजन, परिप्रेक्ष्य तथा अनेक व्यक्तियों की विभिन्न मुद्रायों के समन्वित प्रस्तुति की अनुपम मिसाल है । इनके मैडोना चित्र मातृत्व,कोमलता व सौन्दर्य के प्रतिमान है । अपने समकालीन चित्रकारो माइकेलांजलो व लिआनार्दो विंसी से आयु में बहुत छोटे होने पर भी वे अद्वितीय प्रतिभा के कारण इन कलाकारो के समकक्ष माने जाते है । 6 अप्रैल (गुडफ्राई डे) के ही दिन सन 1520 में वे इस नश्वर संसार से विदा होकर कला जगत में अमर हो गये ।
आज के दूसरे कलाकार विंसेन्ट वान गॉग है जो राफेल से कुछ अदभुत समानतायें रखते है । क्या यह एक संयोग मात्र ही है कि वे भी केवल 37 वर्ष की आयु (1853-1890) में ही अमर हो गये? और उनका जन्मदिन भी महज 7 दिनों के अंतर पर 30 मार्च को होता है ।
वान गॉग भी केवल दस वर्ष के अवधि तक ही कला सर्जना कर सके थे । छोटी जीवन अवधि में ही अतुलनीय कार्य करके इन दोनो महान कलाकारो ने सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा प्रदर्शन के लिये लम्बी आयु आवश्यक नही है ।
सोमवार, 12 मार्च 2012
लघु चित्रकला
भारत की समृद्ध कला परम्परा की एक प्राचीनतम विधा लघुचित्र यानी मिनिएचर पेंटिंग्स है। अजंता के भित्तिचित्रों के पश्चात चित्रकला का विकास अपभ्रंश शैली के अंतर्गत हुआ। इसी अनुक्रम में 10वीं शताब्दी में ताड़पत्रों पर हस्तलिखित धार्मिक या पौराणिक कथाओं की सचित्र ग्रंथो के शुरुआत के साथ ही लघुचित्रों की भी शुरुआत हुई। ताड़पत्रों पर रचित सबसे प्राचीन ग्रंथ "अधिनियुक्ति वृत्ति" मानी जाती है जिसमें कामदेव, श्रीलक्ष्मी पूर्णघट के चित्र पाये जाते है। भारत की लघुचित्र परम्पराओं में मुगल, राजस्थानी, पहाड़ी व दक्षिणी शैली प्रमुख हैं। 14वीं सदी के मध्य मुगलों के उदय के साथ लघुचित्रों की विशिष्ट शैली का प्रचलन हुया। मुगल लघुचित्रों में दरबारी दृश्य, शिकार चित्र, पेड़े-पौधे व पशु-पक्षी आदि शामिल थे। मुगलकाल में हमजानामा, बाबरनामा और अकबरनामा को भी लघु चित्रकलाओं से सुसज्जित किया गया था। इसी दौरान राजस्थान तथा पहाड़ी कला शैलियों ने भी लघुचित्र को विकसित किया। राजस्थानी व पहाड़ी लघुचित्रों के विषयवस्तु प्रकृति व बदलती ऋतुयें, प्रेम के विभिन्न भाव, पौराणिक व धार्मिक कथायें आदि है। इन सभी लघुचित्र रचनाओं में सूक्ष्मता के साथ विविधता, कलात्मकता व सम्प्रेषित भाव दर्शकों को कलाकार की कल्पना से जोड़ देते है। प्राचीनकाल से प्रवाहमान यह चित्रविधान आज भी लोकप्रियता और आकर्षण के नये आयाम रच रही है ।
बुधवार, 23 नवंबर 2011
जहाँगीर सबावाला
जहाँगीर सबावाला एक ऐसा चितेरा जिसने प्रकृति के सौन्दर्य - असौन्दर्य की रहस्यता को सहजता व सुगमता से कैनवास पर उकेरा। इस महान चित्रकार का जन्म मुम्बई के एक समॄद्ध पारसी परिवार में 1922 मे हुआ था।
सर जे. जे. स्कूल आफ़ आर्ट से कला शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होने विभिन्न कला विधाओं में रचना की। इंग्लैंड व फ़्रांस में कला अध्ययन के बाद विभिन्न यूरोपीय वादो से प्रभावित होकर उन्होने शास्त्रीयतावाद , घनवाद ,प्रभाववाद , सूफ़ी रहस्यवाद आदि कला शैलियों मे कार्य किया । झरना , शान्ति , उजड़ गाँव , ऊंटों के विश्राम आदि चित्र आपकी तूलिका से कैनवास पर उभरे । 1951 में मुम्बई के होटल ताज में उनकी पहली कला प्रदर्शनी लगी थी और उनकी अन्तिम कला प्रदर्शनी "रिकोर्सो" आईकोन गैलरी, न्यूयार्क 2009 में आयोजित हुई थी । 1977 में उन्हें पदम श्री से सम्मानित किया गया था ।
फ़िल्म निर्माता अरुण खोपकर ने सबावाला के जीवन पर "कलर आफ़ अब्सेन्स " फ़िल्म बनाई, जिस के लिये अरूण जी को राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला । इस महान कलाकार की आत्मा 2 सितम्बर 2011 को कला जगत मे अमर हो गई ।
गुरुवार, 22 सितंबर 2011
सुधीर रंजन खास्तगीर
बंगाल शैली के आधारस्तम्भ नन्द लाल बोस के प्रिय शिष्य सुधीर रंजन खास्तगीर की उच्च कल्पनाशीलता, सृजनात्मकता एवं पर्यवेक्षण शक्ति अतुलनीय थी। भावव्यंजना की दॄष्टि से उनके चित्रों में आत्मा की अन्तरंग गहराई एवं सौन्दर्य का अथाह सागर था।
सुधीर रंजन खास्तगीर का जन्म चटगांव मे २४ सितम्बर १९०७ को हुआ था। जीवन के हर्ष और उल्लास के चित्र उनकी तूलिका को अधिक प्रिय थे, इसी कारण वे लोक जीवन के चित्रकार कहे जाते थे। विविध मौलिक सृजन शक्ति के साथ उन्होने तैल, टॆम्परा, वाश, पोस्टर, पेस्टल, जैसे कई माध्यम मे कार्य किया। वे मुख्य रुप से न्रतक, संथाल, पलास का पुष्प, और अमलताश का वृक्ष अपने चित्रों के हेतु आधिक पसंद करते थे। उनके प्रसिद्ध चित्रों मे बुक लवर, यंग डान्सर, कश्मीर आदि है। एक उत्कृष्ट चित्रकार के साथ ही साथ वे एक मूर्तिकार भी थे। उनका सर्वोत्कृष्ट मूर्तिशिल्प मां और शिशु है।
कोणार्क,एलीफ़ेटा,महाबलिपुरम जैसे स्थानों की यात्रा कर उन्होने भारतीय मूर्ति एवम वास्तुकला का गहन अध्ययन किया। १९३० मे दक्षिण भारत, और श्रीलंका के साथ ही साथ १९३७ मे इंग्लैड, इटली, जर्मनी, और फ़्रांस की यात्रा कर के वे वंहा की कला परंपरा से परचित हुए। डच चित्रकार वान गो की चित्रण लयात्मकता से वे अधिक प्रभावित हुए। इंग्लैड मे उन्होने एरिक गिल से कांस्य की ढलाई का कार्य भी सीखा। लीनो माध्यम से बना उनका टॊरसो चित्र उनकी विविध मौलिक प्रतिभा का प्रमाण है। खास्तगीर जी की कृतियो मे लावण्य, सांमजस्य व शीतलता की त्रिवेणी थी। कला शिक्षक के रूप में खास्त्गीर जी ने १९३६ में दून पब्लिक स्कूल में दायित्व संभाला। १९५६ में उन्होने लखनऊ कला महाविद्यालय के प्रधानाचार्य का पद ग्रहण किया। १९५७ में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। सेवामुक्ति के बाद १९६३ में उन्होने शान्तिनिकेतन में "पलास" नाम का एक घर बनवाया और १९७४ मे उसी घर मे इस महान कलाकार का देहावसान हुआ।
शुक्रवार, 9 सितंबर 2011
"अनुराग चाहिये, धैर्य भी चाहिये, साधना की सफ़लता भी, कला चर्चा एक साधना ही है"
-असित कुमार हालदार
भारतीय कला मे पुनरुत्थान काल के महान चित्रकारो मे असित कुमार हालदार का एक विशेष स्थान है। हालदार जी का जन्म १० सितम्बर १८९० को कलाभूमि कोलकता मे हुआ था। वे अवनी बाबू के प्रिय शिष्य थे और उनके मार्गदर्शन में कलकत्ता आर्ट कालेज से कला शिक्षा प्राप्त की। चित्रकार के साथ ही साथ ही वे कवि तथा गीतकार भी थे। कवि गुरु रवीन्द्रनाथ के सह्योगी असित कुमार की शैली गतिपूर्ण, सुकुमार व लयबद्ध थी। वे लकङी, रेशम एवम हार्डबोर्ड जैसे धरातल,तथा जलरंग,तेल रंग और टॆम्परा पर अधिक कार्य करते थे। उन्होने प्रयोगवादी शैली से लकङी पर लाख की वार्निश करके उस पर पेंटिंग बनाई, जिसे लोसंट य़ा लासिट कह्ते है। अजंता, जोगीमारा व बाघ के भित्तिचित्रों की अनुकृतियां तैयार करने में भी उनका योगदान था ।
हालदार जी का प्रसिद्ध चित्र जगई मगई (सन्थाल परिवार) है, जो इलाहाबाद संग्राहालय मे संगृहीत है। अकबर, बसंतबहार, कच देवयानी,ॠतु संहार,कुनाल व अशोक, रासलीला जैसे चित्र भी उनकी तूलिका से चित्रित हुये। साहित्यिक रुचि होने से असित जी ने लगभग ४० ग्रन्थो की भी रचना की। जिनमे इंडियन कल्चर एट अ ग्लांस, आर्ट एंड ट्रेडीशन, रूपदर्शिका, ललित कला की धारा जैसी कला इतिहास सम्बन्धी पुस्तके प्रमुख हैं। इंग्लैंड, फ्रांस व जर्मनी में अध्ययन कर भारत लौटने पर हालदार जी ने जयपुर व लखनऊ आर्ट कालेज में प्राचार्य का पद ग्रहण किया। वे पहले भारतीय चित्रकार थे जिन्हे रायल सोसायटी आफ़ आर्ट के फ़ेलोशिप से सम्मानित किया गया। आध्यात्मिक भाव को हालदार ने अपने रचना कौशल से चित्रो मे उकेर कर चित्रकला को नव्य रुप दिया। १४ फरवरी १९६४ तक वे कला सृजन में लीन रहे।
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